केदारनाथ ज्योतिर्लिंग - मंदिर , पौराणिक कथाएं , माहात्म्य और ऐतिहासिक घटनाएं ।
लाखो शिवभक्त जिस मंदिर की यात्रा की कामना करते हे वो हे हिमालय की बर्फीली वादियों में बसे उत्तराखंड का केदारनाथ धाम। केदारनाथ धाम १२ ज्योतिर्लिंगों में शामिल होने के साथ साथ पवित्र चार धाम और पांच केदार में भी गिना जाता हे। केदारनाथ मंदिर एक मात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग हे वो केवल छह माह के लिए दर्शनार्थीओ के लिए खुलता हे , जिसका कारन हिमालय क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु हे। किन्तु , श्रद्धालु इन छह माह में अपने केदारनाथ बाबा के दर्शन के लिए लाखो की संख्या में पहुँचते हे। भले ही लोग केदारनाथ यात्रा अपनी शिव भक्ति से प्रेरित होकर करते हे , पर यहाँ की नैसर्गिक सौंदर्यता उनके मन मोह लेती हे।
केदारनाथ मंदिर अपने चारो तरफ प्राकृतिक सुंदरता से गिरा हुआ हे। इस मंदिर के तीनो ओर हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखर हे - केदारनाथ , खर्चकुंड और भरतकुंड। इतिहास की माने तो इस जगह पर कभी पांच नदियों का संगम हुआ करता था - मंदाकिनी , मधुगंगा , क्षीरगंगा , सरस्वती और स्वर्णगौरी। किन्तु वर्तमान समय में केवल मंदाकिनी नदी का अस्तित्व है जो आगे जाकर अलकनंदा नदी में मिलती हे। समय के रहते बाकि की नदिया लुप्त हो गयी , और कुछ लोग ये भी कहते हे की आज भी ये नदिया पाताल में बहती हे। केदारनाथ मंदिर इसी मंदाकिनी नदी के किनारे पर बना हुआ हे , जहां कभी बारिश के कारण जबरजस्त पानी का बहाव रहता हे ।
इस ज्योतिर्लिंग के प्रागट्य की कथा के अनुसार , हिमालय की केदारघाटी में भगवान विष्णु के परमावतार नर और नारायण ऋषि शिव की तपस्या करते थे। भगवान शिव ने उन्हें तपस्या के फल स्वरुप वरदान मांगने को कहा और नर-नारायण ने भगवान शिव को अपने वरदान स्वरुप उनकी तपोभूमि पर वास करने को कहा। महातपस्वी नर और नारायण के आग्रहवश शिव ने यही पर ज्योतिर्लिंग के रूप में यही पर वास किया।
पंच केदार की कथा के अनुसार इस ज्योतिर्लिंग का इतिहास पांडवो से जुड़ा हुआ हे। महाभारत के युद्ध के बाद भातृहत्या के दोष के निवारण हेतु पांडव भगवान शिव के आशीर्वाद पाना चाहते थे , इसी लिए वो शिवनगरी काशी में गए। किन्तु शंकर भगवान पांडवो के दृढ़निश्चय की परीक्षा करना चाहते थे , इसीलिए वो उनको दर्शन नहीं देना चाहते थे और अंतर्ध्यान होकर केदारक्षेत्र में आकर छुप गए। दूसरी और पांडव कुमार भी भगवान शिव को खोजते हुए केदार आ पहुंचे।
पांडवो के आने की सूचना प्राप्त होते ही भगवान शिव बैल का रूप धारण कर पशुओ के साथ मिल गए , परंतु पांडवो को संदेह हुआ। तभी महाबली पांडवकुमार भीम ने महाकाय रूप लेकर दो पहाड़ो के बीच पर फैला दिए , इस कारण सभी पशु भयवश वहा से भाग निकले। पर बैलरूपी भगवान शिव को पैरो के नीचे से जाना मंजूर नहीं था। भीम बलपूर्वक उस बैल को पकड़ने लगे पर , वो जमीन के अंदर अंतर्ध्यान होने लगा। भीम ने अपने बाहुबल से बैल की खूंध (त्रिकोणात्मक पीठ का भाग ) को पकड़ लिया। भगवान शिव पांडवो की भक्ति , दृढ निश्चयशक्ति और मनोबल से प्रसन्न हुए और तत्काल उन्हें दर्शन दिए। तभी से भगवान शंकर बैल की पीठाकृति के रूप में केदारनाथ में पूजे जाने लगे।
इतिहास की माने तो पांडवो हे यही पर भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर बनवाया था, जिसका जीर्णोद्धार अभिमन्यु के वंशज जन्मेजय ने करवाया था। इतिहासकारो के मुताबिक वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार आदिगुरु शंकराचार्य ने ८वी शताब्दी में करवाया था , पर संजोगवशात यह मंदर ४०० साल तक बर्फ में दबा रहा। उसके बाद १२वी शताब्दी में इस मंदिर की उत्त्खनन के दौरान खोज हुयी। केदारनाथ मंदिर के पीछे के भाग में आदिगुरु शंकराचार्य की समाधी हे , चारधाम की रचना के बाद शंकराचार्य ने ३२ साल की आयु में यही पर समाधी ली थी।
वर्तमान समय का मंदिर ६ फ़ीट ऊँचे चबूतरे पर भूरे रंग के कटुआ पथ्थरो से बनाया गया हे। मंदिर के सामने नंदी की विशाल प्रतिमा हे। सभामंडप में पांडव कुमार , द्रौपदी और भगवान कृष्ण की कलात्मक मूर्तियाँ हे।गर्भगृह में शिवलिंग के अलावा चार मजबूत स्तंभ हे , जिसे इंटरलॉक तकनीक से एकदूसरे के साथ जोड़ा गया हे - इसी के चलते यह मंदिर बहती नदी के मध्य में इतनी मजबूती से जुड़ा हुआ हे। मंदिर के पीछे एक कुंड हे जिसे अमृतकुंड कहा जाता हे , और ऐसा कहा जाता हे इसका पानी पीने से रोगो से मुक्ति मिलती हे। २०१३ में आये जलप्रलय में इस मंदिर का एक पथ्थर की शीला के कारण चमत्कारिक बचाव हुआ था , आज उस शीला को भीमशीला के नाम से पूजा भी जाता हे।
केदारनाथ मंदिर कपाट अक्षयतृतीया (वैशाख सुद तीज ) के दिन शास्त्रोक्त विधी के बाद खोले जाते हे। केदारनाथ मंदिर सुबह के ६:०० बजे दर्शन के लिए खुल जाता हे , यहाँ पर शिवभक्त शिवलिंग पर घी का अभिषेक भी कर सकते हे और उसे छु भी सकते हे। दोपहर के ३:०० बजे से लेकर शाम के ५:०० बजे तक मंदिर बंध रहता हे - इस दौरान विशेष पूजा और केदारनाथ बाबा के विश्राम का वक्त होता हे। शाम को ७:०० बजे से लेकर ८:३० बजे तक केदारनाथ बाबा को अलौकिक श्रृंगार किया जाता हे, इस वक्त पर भक्त केवल दर्शन का लाभ ले सकते हे। इस के बाद शयन आरती के साथ मंदिर को बंध किया जाता हे। इस मंदिर की एक और रोचक बात यह हे की इस मंदिर के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राम्हण ही होते हे।
दीपावली महापर्व के दुसरे दिन (कार्तिक सुद एकम ) गर्भगृह में दिप जलाकर इस मंदिर के कपाट बंध किये जाते हे , और केदारनाथ बाबा की पंचमुखी प्रतिमा को उखीमठ लाया जाता हे। केदारनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर भैरवजी का मंदिर हे , कहा जाता हे इस दौरान भैरवजी इस मंदिर की रक्षा करते हे। आश्चर्य की बात यह हे की जब छह माह के बाद मंदिर के कपाट खोले जाते हे , तब वह दीपक भी जलता रहता हे और मंदिर भी साफसुथरा रहता हे। केदारनाथ मंदिर के खुलने और बंध होने का सामान्यत: यही क्रम होता हे , पर इसके लिए मुहूर्त भी जाना जाता हे।
केदारनाथ मंदिर के कपाट खुलते ही उत्तराखंड के चारधाम - गंगोत्री , यमनोत्री , बद्रीनाथ और केदारनाथ की यात्रा शुरू होती हे। बद्रीनाथ की यात्रा करने वाले व्यक्ति को केदारनाथ के दर्शन जरूर करने चाहिए वार्ना यात्रा अपूर्ण मानी जाती हे और मनवांछित फल नहीं मिलता। वैसे तो केदारनाथ के दर्शन ही मोक्ष की प्राप्ति होती हे पर उससे पहले गौरीकुंड में स्नान को अत्यंत लाभकारी माना जाता हे। केदारनाथ यात्रा अत्यंत कठिन और दुर्गम हे , पर शिव के भक्त इस पथरीले रास्तो को फूल समजकर बाबा के धाम पहुंच जाते हे। ऋषिकेश रेलवे स्टेशन यहाँ से सबसे पास हे और वह देश के अलग अलग राज्यों से ट्रेनसेवा से जुड़ा हुआ हे। यहाँ से मंदिर तक जाने के लिए कुछ सड़कमार्ग पर और कुछ अंतर पैदल चलकर जाना पड़ता हे।
आशा हे की आपको यह जानकारी पसंद आयी होगी। अगले अंक में फिर मिलेंगे एक और ज्योतिर्लिंग के साथ।
जय हो केदारनाथ बाबा की।
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