जानिए अंबाजी शक्तिपीठ का माहात्म्य , इतिहास , वास्तुकला, पूजा-पद्धति , गब्बर पर्वत , भाद्रपद पूर्णिमा का मेला और परंपराओं के बारे में

        

        वैसे तो हमारे देश में बहोत सारे  मंदिर हे, पर कुछ मंदिर ऐसे भी हे जो अपनी कुछ खास बातो के लिए दुनियाभर में मशहुर है।  आज हम ऐसे ही एक मंदिर के बारे में बात करने वाले हे जो अपने शिखर पे लगे ३५८  सुवर्ण कलश की वहज से दुनियाभर में चर्चा का विषय बना हुआ है।  यह मंदिर गुजरात का अंबाजी  शक्तिपीठ हे।  अंबाजी माता मंदिर भारत में माँ अम्बे के शक्तिपीठो में प्रधान शक्तिपीठ हे , जो अहमदाबाद से २०० किलोमीटर और पालनपुर से २० किलोमीटर की दुरी पर है।  
ambaji temple gujarat
        संगेमरमर के पथ्थरो से बना ये मंदिर हजारो लाखो भक्तो के लिए आस्था का केंद्र हे। यह मंदिर ४थि शताब्दी में वलभी शासक अरुणसेन ने करवाया था।  अंबाजी मंदिर का जिर्णोद्धार १९७५ से चल रहा हे।  इस मदिर में माँ के श्री यंत्र की पूजा होती है।  इस यंत्र को कोई भी सीधी आँखों से देख नहीं सकता , यहाँ तक की पुजारी भी आँखों पर पट्टी बांधकर इस यन्त्र की पूजा करते हे।  

        जितना रोचक ये मंदिर हे उतना ही भव्य  इसका  इतिहास भी।  मां के 51 शक्तिपीठों की एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता दुर्गा ने सती के रूप में जन्म लिया था, और भगवान शिव से उनका विवाह हुआ था।   एक बार मुनियों के एक समूह ने यज्ञ आयोजित किया था , यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था।  जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए।  

        यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए, अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने भी एक यज्ञ का आयोजन किया।  उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शिव को इस यज्ञ का निमंत्रण नहीं भेजा।  

        भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए और जब नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है।  यह जानकर वे क्रोधित हो उठीं, नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की जरूरत नहीं होती है।  जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने उन्हें समझाया लेकिन वह नहीं मानी तो प्रभु ने स्वयं जाने से इंकार कर दिया। 

        शंकर जी के रोकने पर भी जिद कर सती यज्ञ में शामिल होने चली गईं ,यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया।  इस पर दक्ष, भगवान शंकर के बारे में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे, इस अपमान से पीड़ित  सती ने यज्ञ-कुंड में कूदकर अपनी प्राणो की आहुति दे दी।  

        भगवान शंकर को जब यह पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया, ब्रम्हाण्ड में प्रलय व हाहाकार मच गया।   शिव जी के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सजा दी।   भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी होकर सारे भूमंडल में घूमने लगे।  

        भगवती सती ने शिवजी को दर्शन दिए और कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के अंग अलग होकर गिरेंगे, वहां महाशक्तिपीठ का उदय होगा।   सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर घूमते हुए तांडव भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी,  पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंड-खंड कर धरती पर गिराते गए।  जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से माता के शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। 

        शास्‍त्रों के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां  सती के अंग के टुकड़े या उनके वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का उदय हुआ।   इस तरह कुल 51 स्थानों में माता के शक्तिपीठों का निर्माण हुआ।  कहा जाता से इसी वक्त माँ का ह्रदय इस स्थान पर पड़ा और वही से उदय हुआ अंबाजी शक्तिपीठ का।  

        एक और कथा के अनुसार, रामायण कल में भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण ने अर्बुदा के जंगल में देवी की आराधना की थी और यही पर देवी अम्बे ने उनको अजयबान दिया था , आगे जाकर उसी बाण से भगवान राम ने रावण का वध किया।  शास्त्रों  में ऐसा भी उल्लेख़  मिलता हे की , नन्द और यशोदा ने भगवान कृष्ण का मुंडन संस्कार इसी जगह पर करवाया था, आज भी वह पीपल का पेड़ गब्बर पर्वत पर मौजूद हे।  

            महाभारत काल में पांडवो ने अपने निर्वासन के दौरान यही पर माँ अंबा की आरधना की थी।  माँ अम्बे ने भीम को अजयमाला दी जो युध्ध में उसका विजय सुनिश्चित करेगी और अर्जुन  को विराटनगर में रहने के लिए दिव्य वेशभूषा  दी , जिसके वजह से अर्जुन बृहनला बना था।  इतिहास के वीर योद्धा महाराणा प्रताप भी देवी अंबा की पूजा करते थे , माँ अम्बा के चरणों में उन्होंने अपनी प्रिय तलवार को अर्पित किया था।  

         अंबाजी मंदिर की वास्तुकला बहोत ही कलात्मक और अद्भुत हे, जो भारतीय परंपरा और संस्कृति को प्रदर्शित करती हे।  मंदिर में एक विशाल मंडप और उससे छोटा गर्भगृह हे जिसमे माँ अम्बा का श्री यंत्र है।  मंदिर के आगे एक बड़ा सा चौक हे , जिसे चाहर या चाचर का चौक भी कहा जाता हे।  भक्त इस चौक में गरबा करके माँ की भक्ति का आनंद लेते हे। 

               मुख्य मंदिर से ३ किलोमीटर दूर उत्तरी - पश्चिम दिशा में गब्बर नाम का पर्वत आया हुआ हे। पौराणिक कथा के अनुसार इसी गब्बर पर्वत की टोच पर माता सती   का ह्रदय गिरा था। पर्वत पर माँ का मंदिर भी हे , इस मंदिर तक जाने के लिए ९९९ सीढ़ियों का चढान करना पड़ता हे और यहाँ पर रोप-वे की सुविधा भी हे।  माँ आदिशक्ति के इस मंदिर में माँ अम्बा का अखंड दीप प्रजव्वलित रहता हे।  ऐसा कहा जाता हे की मंदसौर के वेपारी अखेराज ने माँ कृपा से अतुल धनराशि  अर्जित की और  उन्होंने माँ के इस मंदिर में आधी धनराशि भेट स्वरुप दे दी।  तब से लेकर आज तक इस परिवार की और से माँ के इस मंदिर में इस अखंड दिप की प्रजव्वलित किया जाता रहा हे।  

        मंदिर ट्रस्ट की तरफ से भादो पूर्णिमा के वक्त यहाँ पर बड़ा मेला लगाया जाता हे।  जनसंख्या के मामले में यह मेला विश्व का सबसे बड़ा पदयात्री मेला हे।  इस मेले में दूर दूर से लाखो भक्त चलकर आते हे। जहा एक तरफ इस मंदिर में सदियों से पूजा के नियमो का सख्ती से पालन होता आ रहा हे वही दूसरी और इस मंदिर में भादो पूर्णिमा का बहुत महत्व हे।  क्योकि इस दिन से आरंभ होता हे माँ को अपने घर आने का न्योता देने का सिलसिला।   इस दिन माँ अम्बा के दरबार में चलकर आने के पीछे एक परंपरा रही हे , भक्त माँ आदिशक्ति को नवरात्रो के लिए अपने घर आने का न्योता देते हे। 

               भाद्रपद पूर्णिमा के कुछ ही दिन बाद माँ का पवित्र त्यौहार नवरात्र की शरुआत होती हे, भक्तो की ये मंशा होती हे की इस नौ रात माँ उनके घर साक्षात बिराजे।  इसी मनोकामना के साथ भक्त अपने साथ पताका लेकर आते हे और उसे मंदिर पर चढ़ाकर , माँ को अपने घर आने का न्योता देते हे।  देश के अलग अलग क्षेत्रो से आये लाखो भक्त माँ के दरबार में आने के लिए पैदल निकलते हे , पैरो पे पड़ते छाले हो या लम्बी यात्रा की थकान कुछ भी इन भक्तो के कदमो को रोक नहीं पाता।  

       ये सभी भक्तगण अपनी छोटी छोटी टुकडिया बना कर आते हे , और साथ में माँ अम्बा का रथ भी लेकर आते हे।  जब लम्बी पदयात्रा के बाद ये भक्तगण मंदिर पहुंचते हे तो , माहौल किसी उत्सव से काम नहीं होता।  गरबा की ताल पर जुमते हुए और लबों पे माँ के भजन , जय जय अम्बे  के बुलंद नारे लगाकर भक्तगण अपनी हाजरी लगाने माँ के दरबार में पहुंचते हे।  

        माँ अम्बा के मंदिर में लगने वाले भोग की परंपरा सदियों पुरानी हे, माँ आंबे को लगने वाला भोग मंदिर में ही तैयार किया जाता हे।  इस भोग को बनाने में केवल शुद्ध घी और लकड़ियों का प्रयोग  किया जाता हे।  इसके सलवा तीन अलग अलग रूपों में किया जाता हे माँ का श्रृंगार - सवेरे बालस्वरूप की, दोपहर को यौवन स्वरुप की और रात को प्रौढ़ स्वरुप में की जाती हे माँ की पूजा।  अंबाजी के मंदिर में पूजा पद्धति के अलावा आरती की परंपरा भी बेहद अलग हे।  आरती को बीच में रोक दिया जाता हे और माँ को मनाकर फिर आरती को शुरू किया जाता है।  

        गुजरात सरकार के सहयोग के चलते गब्बर के परिक्रमा पथ पर ५१ शक्तिपीठो की प्रतिकृति का निर्माण किया गया हे।  इस मंदिर का निर्माण और पुजारियों  को ऐसे सुशिक्षित किया गया हे की इसकी पूजा पद्धति असली शक्तिपीठो में होने एहसास देती हे।  इस परिक्रमा पथ का उद्देश्य यही था की, भक्तगण को एक ही जगह पर माँ के ५१ रूपों का दर्शन हो सके।  

        माँ के दरबार में आने वाले भक्तो की कतार लम्बी हे , जिसमे क्या आम और क्या खास।  कोई सालो माँ के चरणों में श्रद्धा के फूल अर्पण करता हे , तो कोई माँ के आशीर्वाद से अपने जीवन में सफलताओं की नयी उँचाईओ को छू रहा हे और भक्त अपनी सफलताओ का पूरा श्रेय माँ अम्बा को दते हे।  अगर आप भी किसी कारणवश अंबाजी मंदिर नहीं  जा पाए हे, जाइये माँ आदिशक्ति के इस धाम में और दर्शन कीजिये माँ अम्बे के पावनकारी रूप का..... !

        बोल माड़ी अंबे जय जय अंबे।  

        

     
        

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